Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


68 . वज्रपात : वैशाली की नगरवधू

नगर आनन्दोत्सव में व्यस्त था । राजमहालय और वीथी , हम्य - अट्टालिकाएं सम्मान्य आगतों से परिपूर्ण थीं । यज्ञ में भेंटस्वरूप आई वस्तुओं के ढेर लगे थे। सैकड़ों कर्णिक , कोठारिक, द्वार - बन्धु , कंचुकी उनकी व्यवस्था में लगे हुए थे। परन्तु महाराज प्रसेनजित् अपने अन्तःकक्ष में अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में बकझक कर रहे थे। सीमान्त से बड़ी भयानक सूचना पाई थी । बारहों मल्ल पुत्र - परिजनों को राह में दस्युओं ने मारकर सब उपानय सामग्री लूट ली थी । बन्धुल मल्ल काष्ठ के कुन्दे की भांति शोक- संतप्त भूमि पर पड़े थे। राजकुमार विदूडभ तीखी दृष्टि से दोनों आहत प्रतिद्वन्द्वियों को चुपचाप खड़े देख रहे थे । महाराज ने बड़ी देर तक बकझक करने के बाद कहा - “ राजकुमार , क्या कारायण आया है ? ”

“ हां महाराज ! ”

“ तो पुत्र , उसे अभी उपस्थित कर। ”

“ महाराज, यह अनुपयुक्त होगा । इस समय यह गृह-विवाद प्रकट नहीं होना चाहिए । कारायण कोई उपद्रव खड़ा कर सकता है। ”

“ तो क्या उसे दण्ड नहीं दिया जाए ? ”

“ क्यों नहीं महाराज ! अभी उसे बन्दीगृह में रखा जाए, पीछे यज्ञ - समारोह की समाप्ति पर न्याय-विचार से जैसा उसका अपराध हो , उसे दण्ड दिया जाएगा , जिससे महाराज का न्याय दूषित न हो । ”

“ तो पुत्र , तुम जैसी ठीक समझो , व्यवस्था करो। ”

“ नहीं महाराज , वह साधारण जन नहीं, सेनापति है। उसकी कारा -व्यवस्था भन्ते सेनापति कर सकते हैं । ”

“ तो बन्धुल , ऐसा ही हो । ”

युवराज ने कहा - “ महाराज, इससे भी गुरुतर एक कार्य है। ”

“ कैसा कार्य पुत्र ? ”

“ सीमान्त का प्रबन्ध । वहां सेना गई है, परन्तु सेनानी विश्वस्त और योग्य नहीं हैं । सर्वत्र छिद्र- ही -छिद्र हैं । इस समय यदि कौशाम्बी - नरेश श्रावस्ती पर आक्रमण करें तो भयानक परिणाम हो सकता है । मेरी सम्मति है कि सेनापति स्वयं सीमान्त पर जाएं । ”

राजा और बन्धुल चुप रहे । कुमार ने फिर कहा - “ मुझे सन्देह है महाराज ! ”

“ कैसा सन्देह ? ”

“ बारह मल्ल -बन्धुओं की हत्या केवल दस्युओं का साधारण कार्य नहीं प्रतीत होता । इसमें षड्यन्त्र भी हो सकता है। ”

बन्धुल ने सिर उठाकर कहा

“ यदि ऐसा है, तो मैं कौशाम्बी को जलाकर छार न करूं तो बन्धुल नहीं। ”

“ भन्ते सेनापति , इसी से मेरी सम्मति में आपका ही सीमान्त पर जाना ठीक है । रक्षा भी होगी , यथार्थ का पता भी लगेगा । ”

“ तो महाराज, मुझे सीमान्त पर जाने दीजिए। ”

“ जा मित्र! परन्तु यहां तेरे बिना मैं अकेला हूं। ”

“ महाराज इस समय यज्ञ - अनुष्ठान में व्यस्त हैं। पुर , पौरजन तथा राज पुरुषों से परिवृत्त हैं । चिन्ता की बात नहीं। मैं सीमान्त जाता हूं। ”

बन्धुल ने उसी समय सीमान्त पर प्रयाणा किया । तब तक कारायण को बन्दीगृह में भेज दिया गया ।

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